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मिल के होती थी कभी ईद भी दीवाली भी | अब ये हालत है डर डर के गले मिलते हैं

दिवाली की चमक उर्दू जबान के संग

धार्मिक कट्टरपंथ और जातिवाद की गंदी अधर्मी घृणा वाली राजनीति से विपरीत उर्दू की शुद्ध जबान में बिना किसी धार्मिक भेदभाव के रची गई दिवाली पर कुछ विशेष रचनाओं का आनंद लिए |आइए आजादी से पहले के भारत में चलें |

अली हसनैन आब्दी फ़ैज़

भारत को पारंपरिक और सांस्कृतिक उत्सव के देश के रुप में अच्छी तरह से जाना जाता है क्योंकि ये बहुधर्मी और बहुसंस्कृति का देश है। भारत में कोई भी हर महीने उत्सवों का आनन्द ले सकता है। यह एक धर्म, भाषा, संस्कृति और जाति में विविधताओं से भरा धर्मनिरपेक्ष देश है, ये हमेशा मेलों और त्योहारों के उत्सवों में लोगों से भरा रहता है। हर धर्म से जुड़े लोगों के अपने खुद के सांस्कृतिक और पारंपरिक त्योहार है। पूरे राष्ट्र में सभी धर्मों के लोगों द्वारा कुछ पर्व मनाये जाते हैं। हमारे देश में विविधता में एकता का उदाहरण है क्योंकि यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई तथा जैन आदि धर्म एक साथ निवास करते हैं। कुछ त्योहारों को राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है जबकि कुछ क्षेत्रीय स्तर पर मनाये जाते हैं।

पूरे विश्व में अपने सभी इस्लामिक पर्वों को मुस्लिम धर्म के सभी लोग पूरे उत्साह के साथ मनाते हैं। इनके कई सारे धार्मिक पर्व है जो वो अपने इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार पूरे जुनून और समर्पण के साथ मनाते हैं। कुछ महत्वपूर्ण इस्लामिक पर्व रमजान (रामादान), ईद-ए-मिलाद, मुहर्रम, बकरीद आदि हैं जिसे वो खास तरीके से मस्जिदों में दुआ माँग कर, दावत देकर और एक-दूसरे को बधाई देकर मनाते हैं। मगर भारत के मुस्लिम हिंदू धर्म के त्योहारों को भी आपसी भाईचारे गंगा जमुनी तहजीब और इस्लामिक शिक्षा अनुसार अपने समाज के साथ मिलकर मनाते हैं इसमें उर्दू के कुछ बेहतरीन शायरों ने दिवाली होली दिवाली पर ऐसे नजमा और गीत लिखे जो शायद ही हिंदी साहित्य में आपको देखने को मिले!

दीवाली पर शाद आरफ़ी देखिए किस तरह कहते हैं

“हो रहे हैं रात के दियों के हर सू एहतिमाम
सुब्ह से जल्वा-नुमा है आज दीवाली की शाम
हो चुकी घर घर सपेदी धुल रही हैं नालियाँ
फिरती हैं कूचों में मिट्टी के खिलौने वालियाँ
भोली-भाली बच्चियाँ चंडोल पापा कर मगन
अपनी गुड़ियों के घरोंदों में सजी है अंजुमन
रस्म की इन हिक़मतों को कौन कह देगा फ़ुज़ूल
रख दिए हैं ठीकरों में ख़ाना-दारी के उसूल
जीत में हर शख़्स वो नौ-ख़ेज़ हो या पुख़्ता-कार
हार से इंकार लब-हा-ए-मसर्रत पर निसार
सर्द मौसम का लड़कपन गर्म चूल्हों पर शबाब
बर्फ़ में साक़ी लगा लाया है मीना-ए-शराब
अबख़रे बन कर कढ़ाई पर हवा लहकी हुई
हर गली पकवान की बू-बास से महकी हुई
घी तुड़ा कर पास वालों की ख़बर लेता हुआ
चर से शालों पर टपक जाने से बू देता हुआ
अध-जले ईंधन का आँखों में धुआँ भरता हुआ
नर्गिस-ए-शहला में सीमाब-ए-ख़िज़ाँ भरता हुआ
नेक-दिल पत्नी का हिस्सा है मुसीबत झेलना
पूरियाँ तलने का पस-मंज़र है पापड़ बेलना
हलवा-ए-बे-दूध की थालों का बहर-ए-बे-कराँ
कश्तियाँ बहती हैं या आ जा रही हैं मोहरियाँ
सालिमों के साथ हैं टूटे खिलौने खांड के
मोर का सर शेर का धड़ पाँव ग़ाएब सांड के
सहन में खेलें बताशे अब्र से बरसे हुए
बर्तनों के पास पत्तल रात के पर्से हुए
खो गई हैं काम के अंदर कुँवारी लड़कियाँ
साथ वो हम-जोलियाँ भी आई हैं जो मेहमाँ
एक नाज़ुक उँगलियों से देवते धोती हुई
दूसरी धोए हुओं को चुन के ख़ुश होती हुई
और गड़वा तीसरी आफ़त की पर-काला लिए
बत्तियाँ बटती है चौथी रूई का गाला लिए
पाँचवें हर सू दिए तरतीब से धरती चली
और छटी बत्ती सजा कर तेल से भरती चली
ये झमक्का कर चुका आरास्ता जब ताक़ दूर
सहन से ज़ीने पे दौड़ा और पहुँचा बाम पर
ओढ़ कर कमली सवाद-ए-शाम निकला शर्क़ से
जूँही रु-कारों पे छाया थोड़े थोड़े फ़र्क़ से
शाम का गेसू खुली आँखों पे जादू कर गया
बुझ गई शम-ए-शफ़क़ नज़रों में कोहरा भर गया
तूर का जल्वा चराग़ों में सिमट कर रह गया
आँख मलना थी कि नज़्ज़ारा पलट कर रह गया
रौशनी में सारियों के रंग लहराने लगे
मुख़्तलिफ़ आँचल हवा के रुख़ पे बल खाने लगे
ये दीवाली के मनाज़िर ये निगाहें कामयाब
या इलाही ता क़यामत बर न आयद आफ़्ताब”

उर्दू सिर्फ़ भाषा ही नहीं बल्कि भारतवर्ष की फैली हुई संस्कृति के मिठास का एक रंग है । कोई भी रचनाकार जिस ज़बान में लिखता है उस से उसका स्वाभाविक प्रेम होता है । इस प्रेम को वो अपनी लेखनी में उजागर करता है । उर्दू शायरों ने भी अपनी शायरी में उर्दू प्रेम का इज़हार किया है और इस भाषा की ख़ूबियों का वर्णन भी किया हैं । शायरों अपनी शायरी में ज़बान के सामाजिक और राजनितिक रिश्तों के बारे में लिखते हुये रिश्तों की बदलती सूरतों को भी विषय बनाया है

हातिम अली मेहर मैं अपने दर्द को कुछ अल्फ़ाज़ में बयां किया

“दाग़ों की बस दिखा दी दिवाली में रौशनी
हम सा न होगा कोई जहाँ में दिवालिया “
देखे वर्तमान बिहार जिसको अकबराबाद भी कहते थे उसके उर्दू जबान के मशहूर शायर
नज़ीर अकबराबादी द्वारा प्रस्तुत की गई दिवाली पर नज़्म

“हर इक मकाँ में जला फिर दिया दिवाली का
हर इक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
सभी के दिल में समाँ भा गया दिवाली का
किसी के दिल को मज़ा ख़ुश लगा दीवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का
जहाँ में यारो अजब तरह का है ये त्यौहार
किसी ने नक़्द लिया और कोई करे है उधार
खिलौने खेलों बताशों का गर्म है बाज़ार
हर इक दुकाँ में चराग़ों की हो रही है बहार
सभों को फ़िक्र है अब जा-ब-जा दिवाली का
मिठाइयों की दुकानें लगा के हलवाई
पुकारते हैं कि ”ला ला! दिवाली है आई”
बताशे ले कोई बर्फ़ी किसी ने तुलवाई
खिलौने वालों की इन से ज़ियादा बिन आई
गोया उन्हों के वाँ राज आ गया दिवाली का
सिरफ़ हराम की कौड़ी का जिन का है बेवपार
उन्हों ने खाया है इस दिन के वास्ते है उधार
कहे है हँस के क़रज़-ख़्वाह से हर इक इक बार
दिवाली आई है सब दे दिलाएँगे ऐ यार
ख़ुदा के फ़ज़्ल से है आसरा दिवाली का
मकान लेप के ठलिया जो कोरी रखवाई
जला चराग़ को कौड़ी वो जल्द झनकाई
असल जुआरी थे उन में तो जान सी आई
ख़ुशी से कूद उछल कर पुकारे ओ भाई
शुगून पहले करो तुम ज़रा दिवाली का
शगुन की बाज़ी लगी पहले यार गंडे की
फिर उस से बढ़ के लगी तीन चार गंडे की
फिरी जो ऐसी तरह बार बार गंडे की
तो आगे लगने लगी फिर हज़ार गंडे की
कमाल निर्ख़ है फिर तो लगा दिवाली का
किसी ने घर की हवेली गिरो रखा हारी
जो कुछ थी जिंस मयस्सर बना बना हारी
किसी ने चीज़ किसी किसी की चुरा छुपा हारी
किसी ने गठरी पड़ोसन की अपनी ला हारी
ये हार जीत का चर्चा पड़ा दिवाली का
किसी को दाव पे लानक्की मूठ ने मारा
किसी के घर पे धरा सोख़्ता ने अँगारा
किसी को नर्द ने चौपड़ के कर दिया ज़ारा
लंगोटी बाँध के बैठा इज़ार तक हारा
ये शोर आ के मचा जा-ब-जा दिवाली का
किसी की जोरू कहे है पुकार ऐ फड़वे
बहू की नौग्रह बेटे के हाथ के खड़वे
जो घर में आवे तो सब मिल किए हैं सौ घड़वे
निकल तू याँ से तिरा काम याँ नहीं भड़वे
ख़ुदा ने तुझ को तो शोहदा किया दिवाली का
वो उस के झोंटे पकड़ कर कहे है मारुँगा
तिरा जो गहना है सब तार तार उतारूँगा
हवेली अपनी तो इक दाव पर मैं हारूँगा
ये सब तो हारा हूँ ख़ंदी तुझ भी हारूँगा
चढ़ा है मुझ को भी अब तो नशा दिवाली का
तुझे ख़बर नहीं ख़ंदी ये लत वो प्यारी है
किसी ज़माने में आगे हुआ जो ज्वारी है
तो उस ने जोरू की नथ और इज़ार उतारी है
इज़ार क्या है कि जोरू तलक भी हारी है
सुना ये तू ने नहीं माजरा दिवाली का
जहाँ में ये जो दीवाली की सैर होती है
तो ज़र से होती है और ज़र बग़ैर होती है
जो हारे उन पे ख़राबी की फ़ैर होती है
और उन में आन के जिन जिन की ख़ैर होती है
तो आड़े आता है उन के दिया दिवाली का
ये बातें सच हैं न झूट उन को जानियो यारो!
नसीहतें हैं उन्हें दिल से मानियो यारो!
जहाँ को जाओ ये क़िस्सा बखानियो यारो!
जो ज्वारी हो न बुरा उस का मानियो यारो
‘नज़ीर’ आप भी है ज्वारिया दीवाली का”

तो वही दीपावली पर बनारस के मशहूर शायर नज़ीर बनारसी
कुछ क्यों बोलते हैं

“मिरी साँसों को गीत और आत्मा को साज़ देती है
ये दीवाली है सब को जीने का अंदाज़ देती है
हृदय के द्वार पर रह रह के देता है कोई दस्तक
बराबर ज़िंदगी आवाज़ पर आवाज़ देती है
सिमटता है अंधेरा पाँव फैलाती है दीवाली
हँसाए जाती है रजनी हँसे जाती है दीवाली
क़तारें देखता हूँ चलते-फिरते माह-पारों की
घटाएँ आँचलों की और बरखा है सितारों की
वो काले काले गेसू सुर्ख़ होंट और फूल से आरिज़
नगर में हर तरफ़ परियाँ टहलती हैं बहारों की
निगाहों का मुक़द्दर आ के चमकाती है दीवाली
पहन कर दीप-माला नाज़ फ़रमाती है दीवाली
उजाले का ज़माना है उजाले की जवानी है
ये हँसती जगमगाती रात सब रातों की रानी है
वही दुनिया है लेकिन हुस्न देखो आज दुनिया का
है जब तक रात बाक़ी कह नहीं सकते कि फ़ानी है
वो जीवन आज की रात आ के बरसाती है दीवाली
पसीना मौत के माथे पे छलकाती है दीवाली
सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या
उजाला हर तरफ़ है इस किनारे उस किनारे क्या
गगन की जगमगाहट पड़ गई है आज मद्धम क्यूँ
मुंडेरों और छज्जों पर उतर आए हैं तारे क्या
हज़ारों साल गुज़रे फिर भी जब आती है दीवाली
महल हो चाहे कुटिया सब पे छा जाती है दीवाली
इसी दिन द्रौपदी ने कृष्ण को भाई बनाया था
वचन के देने वाले ने वचन अपना निभाया था
जनम दिन लक्ष्मी का है भला इस दिन का क्या कहना
यही वो दिन है जिस ने राम को राजा बनाया था
कई इतिहास को एक साथ दोहराती है दीवाली
मोहब्बत पर विजय के फूल बरसाती है दीवाली
गले में हार फूलों का चरण में दीप-मालाएँ
मुकुट सर पर है मुख पर ज़िंदगी की रूप-रेखाएँ
लिए हैं कर में मंगल-घट न क्यूँ घट घट पे छा जाएँ
अगर परतव पड़े मुर्दा-दिलों पर वो भी जी जाएँ
अजब अंदाज़ से रह रह के मस़्काती है दीवाली
मोहब्बत की लहर नस नस में दौड़ाती है दीवाली
तुम्हारा हूँ तुम अपनी बात मुझ से क्यूँ छुपाते हो
मुझे मालूम है जिस के लिए चक्कर लगाते हो
बनारस के हो तुम को चाहिए त्यौहार घर करना
बुतों को छोड़ कर तुम क्यूँ इलाहाबाद जाते हो
न जाओ ऐसे में बाहर ‘नज़ीर’ आती है दीवाली
ये काशी है यहीं तो रंग दिखलाती है दीवाली”

फिर आपने एक बार एक नज्म लिखी।
लिखा के

“घुट गया अँधेरे का आज दम अकेले में
हर नज़र टहलती है रौशनी के मेले में
आज ढूँढने पर भी मिल सकी न तारीकी
मौत खो गई शायद ज़िंदगी के रेले में
इस तरह से हँसती हैं आज दीप-मालाएँ
शोख़ियाँ करें जैसे साथ मिल के बालाएँ
हर गली नई दुल्हन हर सड़क हसीना है
हर देहात अँगूठी है हर नगर नगीना है
पड़ गई है ख़तरे में आज यम की यमराजी
मौत के भी माथे पर मौत का पसीना है
रात के करूँ मैं है आज रात का कंगन
इक सुहागनी बन कर छाई जाती है जोगन
क़ुमक़ुमे जले घर घर रौशनी है पट पट पर
ले के कोई मंगल-घट छा गया है घट घट पर
रौशनी करो लेकिन फ़र्ज़ पर न आँच आए
हो निगाह सीमा पर और कान आहट पर
होशियार उन से भी जो निगाह फेरे हैं
पाक ही नहीं तन्हा और भी लुटेरे हैं
छोड़ अपनी नापाकी या बदल दे अपनी धुन
मौत लेगा या जीवन दो में जिस को चाहे चुन
हम हैं कृष्ण की लीला हम हैं वीर भारत के
हम नकुल हैं हम सहदेव हम हैं भीम हम अर्जुन
द्रोपदी से दुर्घटना दूर कर के छोड़ेंगे
ऐ समय के दुर्योधन चूर कर के छोड़ेंगे
क़ब्र हो समाधी हो सब को जगमगाएँगे
धूम से शहीदों का सोग हम मनाएँगे
तुम से काम लेना है हम को दीप-मालाओ
सारे दीप की लौ से दिल की लौ बढ़ाएँगे
सब से गर्मियाँ ले कर सीने में छुपाना है
दिल को इस दिवाली से अग्नी बम बनाना है “

राजनीतिक दुर्भावना से धार्मिक और सामाजिक एकता में विघ्न डालने वाले लोग इस नज़्म को ध्यान से पढ़ें
आफ़ताब रईस पानीपती कुछ यूं लिखते हैं

“राम के हिज्र में इक रोज़ भरत ने ये कहा
क़ल्ब-ए-मुज़्तर को शब-ओ-रोज़ नहीं चैन ज़रा
दिल में अरमाँ है कि आ जाएँ वतन में रघुबिर
याद में उन की कलेजे में चुभे हैं नश्तर
कोई भाई से कहे ज़ख़्म-ए-जिगर भर दें मिरा
ख़ाना-ए-दिल को ज़ियारत से मुनव्वर कर दें
राम आएँ तो दिए घी के जलाऊँ घर घर
दीप-माला का समाँ आज दिखाऊँ घर घर
तेग़-ए-फ़ुर्क़त से जिगर पाश हुआ जाता है
दिल ग़म-ए-रंज से पामाल हुआ जाता है
दाग़ हैं मेरे जले दिल पे हज़ारों लाखों
ग़म के नश्तर जो चले दिल पे हज़ारों लाखों
कह रहे थे ये भरत जबकि सिरी-राम आए
धूम दुनिया में मची नूर के बादल छाए
अर्श तक फ़र्श से जय जय की सदा जाती थी
ख़ुर्रमी अश्क हर इक आँख से बरसाती थी
जल्वा-ए-रुख़ से हुआ राम के आलम रौशन
पुर उमीदों के गुलों से हुआ सब का दामन
मोहनी शक्ल जो रघुबिर की नज़र आती थी
आँख ताज़ीम से ख़िल्क़त की झुकी जाती थी
मुद्दतों बा’द भरत ने ये नज़ारा देखा
कामयाबी के फ़लक पर था सितारा चमका
दिल ख़ुशी से कभी पहलू में उछल पड़ता था
हो मुबारक ये कभी मुँह से निकल पड़ता था
होते रौशन हैं चराग़ आज जहाँ में यकसाँ
गुल हुआ आज ही पर एक चराग़-ए-ताबाँ
है मुराद उस से वो भारत का चराग़-ए-रौशन
नाम है जिस का दयानंद जो था फ़ख़्र-ए-वतन
जिस दयानंद ने भारत की पलट दी क़िस्मत
जिस दयानंद ने दुनिया की बदल दी हालत
जिस दयानंद ने गुलज़ार बनाए जंगल
जिस दयानंद ने क़ौमों में मचा दी हलचल
आज वो हिन्द का अफ़्सोस दुलारा न रहा
ग़म-नसीबों के लिए कोई सहारा न रहा
याद है उस की ज़माने में हर इक सू जारी
उस की फ़ुर्क़त की लगी तेग़ जिगर पर कारी
दिल ये कहता है कि इस वक़्त ज़बानें खोलें
आओ मिल मिल के दयानंद कीक हम जय बोलें”

मोहम्मद सिद्दीक मुस्लिम ने कुछ यूं बयां किया कि

“छुप गया ख़ुर्शीद-ए-ताबाँ आई दीवाली की शाम
हर तरफ़ जश्न-ए-चराग़ाँ का है कैसा एहतिमाम
डेवढ़ियों पर शादयाने ऐश के बजने लगे
और रंगीं क़ुमक़ुमों से बाम-ओ-दर सजने लगे
इत्र-ओ-अंबर से हवा है किस क़दर महकी हुई
ख़ुशनुमा महताबियों से है फ़ज़ा दहकी हुई
फुलझड़ी से फूल यूँ झड़ते हैं जैसे कहकशाँ
हर तरफ़ फैला फ़ज़ा में है पटाख़ों का धुआँ
क्या मज़े की आतिश-अफ़्शानी है अग्नी-बान की
देख कर अश-अश करे जिस को नज़र इंसान की
हैं सितारों की ये लड़ियाँ या चराग़ों की क़तार
कूचा-ओ-बाज़ार के दीवार-ओ-दर हैं नूर-बार
बढ़ रहा है सूरत-ए-सैलाब लोगों का हुजूम
हर दुकाँ पर गाहकों का शोर-ओ-ग़ुल है बिल-उमूम
रौशनी बन कर ख़ुशी हर सम्त है छाई हुई
एक ख़िल्क़त जिस के जल्वों की तमाशाई हुई”

आइए हम सब इस दिवालीपर कसम खाएं कि अपने सामाजिक ताने-बाने को मजबूत करेंगे और अपनी भारत की संस्कृति को सार्थक करते हुए वसुदेव कुटुम कुंभ की भावना को जागृत    करेंगे |

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